धर्मके विषयमें शास्त्रही प्रामाणिकताकी कसौटी है, मनमाना तर्क नहीं। आधुनिक कानूनमें भी न्यायालयमें आप केवल वही प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं जो साक्ष्य अधिनियम के अनुसार ग्राह्य हो। किसी विशेष अधिनियम सम्बन्धी प्रश्न पर उस अधिनियम और संविधान की सीमा में ही बहस कर सकते हैं। उसी प्रकार धर्मके सम्बन्ध में वेद-शास्त्र में कही हुयी बातें ही प्रमाण के रूपमें ग्राह्य हैं, अन्य सामाजिक-वैज्ञानिक चर्चायें प्रमाण नहीं हो सकतीं।