*प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य का अर्थ।
*व्यवहार में भी स्वाभाविक रूप किसी विशेष परिस्थितिमें एकाग्र होने पर श्वास रुक जाती है और बाहर जाकर रुकती है, भीतर नहीं।
*चित्त रूपी बृक्ष के दो बीज हैं- प्राण और वासना। इन दोनों में से एक का नियंत्रण होने पर दूसरे का भी नियंत्रण हो जाता है। दोनों के लिये अभ्यास करना चाहिये।
*श्वास और प्राण में अन्तर है। श्वास प्राण नहीं है, अपितु प्राणका कार्य है।
*योग-वेदान्त की भाषा में प्राण जड़ पदार्थ है।