दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वती

E 205. पातञ्जल योगसूत्र 2.13. "सतिमूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः" की विशेष व्याख्या।


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*कर्माशय की उत्पत्ति ही क्यों होती है?
*सृष्टिके आदिमें क्यों किसीको उत्तम और किसी को निकृष्ट योनि प्राप्त होती है? उस समय तक जीवका कौन सा कर्म रहता है जिसके फलस्वरूप उत्तम अथवा निकृष्ट फल मिलता है?
*सृष्टि रचना का उद्देश्य जीव को संसार चक्रमें डालना नहीं, अपितु उससे मुक्त करना है।
*पशु पक्षी इत्यादि योनि भी जीवके कल्याण के लिये ही मिलती है। यह दण्ड से अधिक पुरस्कार है। क्योंकि यह केवल भोगयोनि है। इसमें पुराने कर्मों का नाश होता है, नये कर्म नहीं बनते हैं। पशु पक्षी शरीर से न पाप होता है न पुण्य। केवल पुराने पाप पुण्य कटते हैं।
*विभिन्न योनियों की प्राप्ति का रहस्य।
*मनुष्यकी मनोवृत्तियां न्यूनतम चौरासी लाख प्रकार की होती हैं।
*मनुष्य शरीर में भी जीव उतने समय के लिये वही प्राणी है जिसकी मनोवृत्ति बनी हुयी है। मनुष्यका सूक्ष्म शरीर उस समय वैसा ही हो जाता है।
*जीव स्वभावसे सहज और सरल है। हिंसा, द्वेष, लोभ इत्यादि वृत्तियां आरोपित हैं, मूल नहीं।
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दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वतीBy Sadashiva Brahmendranand Saraswati