जड़-चेतन की ग्रन्थि अर्थात् द्रष्टा और दृश्य का संयोगही हेय का कारण है। *गीता - प्रकृति पुरुष अनादि हैं। इसमें पुरुष अविकारी है। विकार और गुण प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं। पुरुष और चित्त का भोक्ता-भोग्य भाव ही हेय है। यहां प्रकृति का अर्थ माया और पुरुष का अर्थ शुद्ध परमात्मा है। *ज्ञान हो जाने के उपरान्त आत्मासे गुणों का सम्बन्ध नहीं रह जाता। *पुरुष वास्तव में भोक्ता नहीं है, उसे भोक्ता कहा जा रहा है केवल समझने के लिये। *मैं शरीर नहीं हूं, यह समझना स्वस्थ होना है। मैं शरीर हूं, यह समझना प्रकृतिस्थ होना है।