पातञ्जल योग, सूत्र 4 - वृत्तिसारूप्यमितरत्र। अर्थात् यथा दृष्टि तथा सृष्टि। योगवासिष्ठ वर्णित जड़समाधि सम्बन्धी दृष्टांत। जड़ योगसाधनासे परमकल्याण नहीं होता, ज्ञानसे ही होता है।
चित्त जलाशय है, चित्वृत्तियां जलतरंगे हैं , आत्मा चन्द्रमा है। तरंगरहित शान्त जल में ही चन्द्रमाका ठीक प्रतिबिम्ब दिखता है। उसी प्रकार चित्तवृत्तियों के शान्त होने पर ही आत्मदर्शन होता है।
वासनाक्षय मनोनाश और तत्वबोध परस्पर अन्योन्याश्रित है।