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मण्डल 1. सूक्त 4. मंत्र 8 - दुष्टों पर विजय कैसे संभव हो?


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अ॒स्य पी॒त्वा श॑तक्रतो घ॒नो वृ॒त्राणा॑मभवः। प्रावो॒ वाजे॑षु वा॒जिन॑म्॥ - ऋग्वेद (1.4.8)


पदार्थ -


हे पुरुषोत्तम ! जैसे यह (घनः) मूर्त्तिमान् होके सूर्य्यलोक (अस्य) जलरस को (पीत्वा) पीकर (वृत्राणाम्) मेघ के अङ्गरूप जलबिन्दुओं को वर्षाके सब ओषधी आदि पदार्थों को पुष्ट करके सब की रक्षा करता है, वैसे ही हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्मों के करनेवाले शूरवीरो ! तुम लोग भी सब रोग और धर्म के विरोधी दुष्ट शत्रुओं के नाश करनेहारे होकर (अस्य) इस जगत् के रक्षा करनेवाले (अभवः) हूजिये। इसी प्रकार जो (वाजेषु) दुष्टों के साथ युद्ध में प्रवर्त्तमान धार्मिक और (वाजिनम्) शूरवीर पुरुष है, उसकी (प्रावः) अच्छी प्रकार रक्षा सदा करते रहिये॥


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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)

(सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)

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