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ऋग्वेद मण्डल 1. सूक्त 2. मंत्र 7 - प्राण का रहस्य


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मि॒त्रं हु॑वे पू॒तद॑क्षं॒ वरु॑णं च रि॒शाद॑सम्। धियं॑ घृ॒ताचीं॒ साध॑न्ता॥ - ऋग्वेद (1.2.7)


पदार्थ -


मैं शिल्पविद्या का चाहनेवाला मनुष्य, जो (घृताचीम्) जलप्राप्त करानेवाली (धियम्) क्रिया वा बुद्धि को (साधन्ता) सिद्ध करनेवाले हैं, उन (पूतदक्षम्) पवित्रबल सब सुखों के देने वा (मित्रम्) ब्रह्माण्ड में रहनेवाले सूर्य्य और शरीर में रहनेवाले प्राण-मित्रो० इस ऋग्वेद के प्रमाण से मित्र शब्द करके सूर्य्य का ग्रहण है-तथा (रिशादसम्) रोग और शत्रुओं के नाश करने वा (वरुणं च) शरीर के बाहर और भीतर रहनेवाला प्राण और अपानरूप वायु को (हुवे) प्राप्त होऊँ अर्थात् बाहर और भीतर के पदार्थ जिस-जिस विद्या के लिये रचे गये हैं, उन सबों को उस-उस के लिये उपयोग करूँ॥७॥

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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)

(सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)

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