दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वती

522 आयुर्वेदमें सदाचार-10। प्रज्ञापराध।विभिन्न त्रिक्।रोगकारक त्रिक्- अतियोग, अयोग और मिथ्यायोग।


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इस एपिसोड में - *प्रज्ञापराध। *विभिन्न प्रकार के त्रिक्। *रोगकारक त्रिक्- अतियोग अयोग और मिथ्यायोग। *शरीर के तीन स्तम्भ - आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य। *तीन प्रकार के बल - सहज बल, कालकृत बल और युक्तिकृत बल। * तीन आयतन - इन्द्रियोंके विषय, कर्म और काल। *इन तीनों के रोगकारक तीन प्रकार के योग - अतियोग, अयोग और मिथ्यायोग। *पांचों ज्ञानेन्द्रियों के अतियोग , अयोग अथवा मिथ्यायोग से रोग उत्पन्न होते हैं। *पांचों कर्मेन्द्रियों के अतियोग, अयोग अथवा मिथ्यायोग से रोग उत्पन्न होते हैं और इसी प्रकार *मानस के मिथ्यायोग से रोग उत्पन्न होते हैं। *यह सब बुद्धिके दोष से होते हैं, अतः इन्हे ही प्रज्ञापराध कहते हैं। * इसी प्रकार शीत, ग्रीष्म और वर्षा ऋतुओं का त्रिक् है। समयानुसार और उचित मात्रामें सर्दी, गर्मी और वर्षा होना आरोग्यकर है। किन्तु इनका अतियोग (अत्यधिक मात्रा में होना) अयोग (समयानुसार उचित सर्दी गर्मी वर्षा का न होना) अथवा मिथ्यायोग (विना मौसम के सर्दी गर्मी अथवा वर्षा का होना) रोगकारक होता है।
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दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वतीBy Sadashiva Brahmendranand Saraswati