विद्रोही करीब दो दशकों तक जेएनयू परिसर में ही रहते रहे. शायद जेएनयू की विद्रोही हवा, परिवर्तनकामी आकांक्षा और उनकी हिंदी साहित्य पढ़ने की इच्छा ने उन्हें रोके रखा हो. लेकिन वे जब तक जिंदा रहे, ‘आसमान में धान बोते रहे’ और अंत में छात्रों के साथ संघर्ष करते हुए ही चले गए.