दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वती

देवीभागवत 1.17,18,19। शुकदेवजीको जनक से उपदेश एवं शुकदेवजी का विवाह एवं सन्तानें।


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न देहो न च जीवात्मा नेन्द्रियाणि परन्तप।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।।
देहोऽयं मम बन्धोऽयं न ममेति च मुक्तता।
तथा धनं गृहं राज्यं न ममेति च निश्चयः।।
शुकदेवजी विवाह नहीं कर रहे थे। उनका असमंजस और व्यग्रता दूर नहीं हो रही थी तब व्यासजीने सोचा कि गुरु थोडा़ दूर का होना ठीक रहता है। शिष्य जब कष्ट उठाकर गुरुके पास पहुंचता है और ज्ञानप्राप्तिके लिये उसे तपस्या करनी पड़ती है तब उस पर उपदेशका सम्यक् प्रभाव पड़ता है। पुनश्च, स्नेह सम्बन्ध होनेके कारणभी मेरे उपदेश का प्रभाव इन पर नहीं पड़ रहा है। अतः व्यासजी ने शुकदेवको राजा जनकके पास जाने को कहा। शुकदेव सुमेरु पर्वतसे पैदल चलकर तीन वर्षमें मिथिलापुरी में राजा जनक के पास गये। जनक ने शुकदेवको खूब प्रतीक्षा कराया और भांति भांतिसे परीक्षा लिया । धैर्य और वैराग्य की परीक्षा लेने के उपरान्त उन्हे क्रमसंन्यासका उपदेश दिया अर्थात् पहले विवाह करके गृहस्थधर्मका पालन करें तब संन्यास लें। लौटकर शुकदेव ने व्यासजी की आज्ञानुसार पीवरी नामकी कन्यासे विवाह किया। पीवरी से शुकदेवने कृष्ण, गौरप्रभ, भूरि और देवश्रुत नामक चार पुत्र और कीर्ति नामकी एक पुत्री उत्पन्न किया। तदुपरान्त संन्यास ग्रहणकर कैलास पर चले गये। व्यासजी अब भी पुत्रमोह से शोकग्रस्त थे तो साक्षात् शंकरजीने प्रकट होकर उन्हे उपदेश दिया और कहे कि शुकदेवकी छाया सदा आपके साथ रहेगी और आप उस छायाका दर्शन भी कर सकेंगे।
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दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वतीBy Sadashiva Brahmendranand Saraswati