Never Born, Never Died - हिन्दी

दृश्य से द्रष्टा में छलांग (अष्‍टावक्र : महागीता - 67)


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क्वात्मनो दर्शनं तस्य यद्दृष्टमवलंबते।

धीरास्तं तं न पश्यंति पश्यंत्यात्मानमव्ययम्‌।। 216।।
क्व निरोधो विम़ूढस्य यो निर्बंधं करोति वै।
स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदाऽसावकृत्रिमः।। 217।।
भावस्य भावकः कश्चिन्न किंचिद्भावकोऽपरः।
उभयाभावकः कश्चिदेवमेव निराकुलः।। 218।।
शुद्धमद्वयमात्मानं भावयंति कुबुद्धयः।
न तु जानन्ति संमोहाद्यावज्जीवमनिर्वृताः।। 219।।
मुमुक्षोर्बुद्धिरालंबमंतरेण न विद्यते।
निरालंबैव निष्कामा बुद्धिर्मुक्तस्य सर्वदा।। 220।।

क्वात्मनो दर्शनं तस्य यद्दृष्टमवलंबते।

धीरास्तं तं न पश्यंति पश्यंत्यात्मानमव्ययम्‌।।

‘उसको आत्मा का दर्शन कहां है, जो दृश्य का अवलंबन करता है? धीरपुरुष दृश्य को नहीं देखते हैं और अविनाशी आत्मा को देखते हैं।’

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Never Born, Never Died - हिन्दीBy Oshō - ओशो