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*साधन चतुष्टय का ध्यान गुरुको भी रखना चाहिये।
*अपरिपक्व को वेदान्तज्ञान देना वैसे ही है जैसे बन्दरके हाथमें उस्तरा देना। .......
*एक ओर कहे कि "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" , दूसरी ओर कहते हैं "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" , "सर्व ँ ह्येतद्ब्रह्म" । इस विसंगतिका क्या समाधान है? वैराग्यका क्या अर्थ है? यह सारा जगत ब्रह्म ही है तो इसमेंसे छोडो़गे क्या? क्या संसारको छोड़ने का अर्थ ब्रह्मको छोड़ना नहीं हुआ?