पातञ्जल योगसूत्र का "द्रष्टा" (तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्) और वेदान्त (माण्डूक्य , बृहदारण्यक) का ब्रह्म (अयमात्मा ब्रह्म)।
निवृत्ति और प्रवृत्तिमें अन्तर - निवृत्ति में अपने अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं होगी। प्रवृत्ति विना दूसरी वस्तु के हो ही नहीं सकती। द्वैत और अद्वैत (भक्ति और ज्ञान) की प्रक्रिया में अन्तर। बाहरसे भीतर लौटना निवृत्ति है। भीतरसे बाहर जाना प्रवृत्ति है। पहले प्रवृत्ति मार्ग अपनाना चाहिये। दुष्प्रवृत्ति छोड़कर सद्प्रवृत्ति अपनायें। निष्काम सद्प्रवृत्ति के द्वारा चित्तको शुद्ध करते हुये निवृत्तिकी ओर बढ़ना चाहिये। चित्तशुद्धि होने पर ही आत्मा का साक्षात्कार होता है। यह समझ लीजिये कि ज्ञान मुख्य राजमार्ग है और भक्ति उस राजमार्ग तक पहुंचनेके लिये लिंकरोड है।