दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वती

E 126. योग-वेदान्त। गीता 6.29-31. समदर्शन और समवर्तन (भाग 2)। व्यवहार और वेदान्तविचार।


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ध्यानका और विचारका विषय अलग अलग है।
व्यवहार रूप देखता है वेदान्त स्वरूप देखता है। वस्तु वही रहती है किन्तु उसी के विभिन्न रूप बन जाने पर व्यवहार बदल जाता है। उसी मिट्टी से असुरों की भी प्रतिमा बनती है उसीसे देवताओं की भी। प्रतिमायें बन जाने के उपरान्त प्रत्येक के साथ अलग व्यवहार होता है। उसी स्वर्ण से अंगूठी बनती है , उसीसे कंगन, उसीसे हार। विचार अथवा वेदान्तदृष्टि यह है कि तीनों स्वर्ण हैं। व्यवहार यह है कि अंगूठी उंगली में, कंगन कलाईमें और हार गले में पहनना है।
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दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वतीBy Sadashiva Brahmendranand Saraswati