*मन ही भोक्ता है किन्तु छल करके यही भोग्य भी बन जाता है। रूप बदलता रहता है।यह इसका दुर्व्यसन है जिसे छोड़ नहीं पाता। चंचलतासे श्रम होता है किन्तु समझता नहीं। यही जीवनका सबसे बडा़ कष्ट है। सुषुप्तिमें मन की दौड़ नहीं होती, अतः थकान नहीं होती। वहां न विषय होता है न मन की भाग दौड़।
*मन और शरीर को ही हम आत्मा और भोक्ता मान लेते हैं। यही अज्ञान है।
*चैतन्य को चैतन्य का ही बोध होता है। अतः सब कुछ चैतन्य ही है।
*जो दोष सुषुप्तिके आनन्दमें है वही जाग्रतमें भी है।
* इन्द्रियोंकी क्षमता सीमित है।