सद्गुरुसुश्रूषा श्रीमद्भागवत में कहा है -
योगी-संन्यासी का वास्तविक नियम और स्वभाव जानने का प्रयास करना उसी प्रकार असम्भव है जैसे आकाश में किसी पक्षी का पदचिह्न खोजना। फिर ऐसे गुरु की सेवा कैसे करें ? वैसे भी सेवाधर्म अत्यन्त कठिन है। भरतजी ने कहा - सबतें सेवक धरमु कठोरा। उसमें भी सद्गुरुसेवा । सद्गुरुकी वास्तविक सेवा जानना अत्यंत कठिन है। गुरुगीता में स्वयं भगवान् शङ्कर कहते है -
" देव किन्नर गंधर्वाः पितरो यक्ष चारणाः।
मुनयोऽपि न जानन्ति गुरुसुश्रूषणे विधिम्।।
न मुक्तो देवगंधर्वाः पितरो यक्ष किन्नराः।
ऋषयः सर्वसिद्धाश्च गुरुसेवा पराङ्मुखाः।"
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