*योगशास्त्रकी स्वरूपस्थिति को वेदान्तमें मुक्ति कहते हैं।
*धर्म व्यावहारिक सत्य बताता है और वेदान्त पारमार्थिक सत्य। *पहले व्यावहारिक सत्य की साधना करनी चाहिये। *वेदान्त से समदर्शन सीखिये, धर्मसे समवर्तन। समवर्तन सदा सापेक्ष होता है। सृष्टिमें निरपेक्ष समवर्तन असम्भव है। इसका अर्थ करना होगा - यथायोग्य व्यवहार। सबके साथ समान व्यवहार हो ही नहीं सकता। समदर्शन केवल विचार का विषय है। समदर्शन को समवर्तन का विषय नहीं बना सकते । *वेदान्त अभेद की बात करता है। धर्म भेद की। व्यवहार में अभेद सम्भव नहीं। विना भेदज्ञानके धर्म अथवा व्यववहार का सम्पादन हो ही नहीं सकता।