विपरीत ज्ञान और परीत ज्ञान।स्वप्नमें जाग्रतवत् प्रतीत होता है।होता नहीं, केवल प्रतीत होता है-जाग्रतवदवभासते। उसी प्रकार जाग्रतमें भी है नहीं, केवल प्रतीत हो रहा है। *प्रसन्नता वस्तु के आधार पर नहीं, वस्तु के ज्ञानके आधार पर होती है। *विपरीत ज्ञानका नाम संसार , परीत ज्ञानका नाम ब्रह्म। इस सब कुछको अपना आपा समझना ज्ञान है, इस सबको अपनेसे भिन्न समझना भ्रम है।मनका भ्रमणही भ्रम है। भ्रमणं भ्रान्तिः।
*चेतनसे जड़की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अतः यह जो सब कुछ प्रतीत हो रहा है वह भी ब्रह्म ही है। बात केवल इतनी है कि विपरीत प्रतीत हो रहा है, परीत नहीं।