अपनी विश्वरूपता को पहचान लेने के उपरान्त विश्वके सुख दुःख हमारे सुख दुःख हो जाते हैं।
*सुखका वास्तविक स्वरूप वह है जो अविनाशी हो। वह अतीन्द्रिय होता है , सर्वदा और सर्वत्र होता है।
*सामाजिक दृष्टिसे भी दुःखका मुख्य कारण है तुलना।
*आपकी अपने मनसे बनाई हुयी सृष्टि आपको दुःख देती है, ईश्वरकी सृष्टिमें दुःख नहीं है।
*मनका दुःख मिटानेके लिये मन से ही क्रिया करनी होगी, शरीरके प्रयास से मनका दुःख नहीं मिटेगा।