यद्यपि स्वप्न भविष्य का संकेत करते हैं और स्वप्नफलका घटित होना अनुभवसिद्ध है, किन्तु वह भिन्न विषय है। अनुभवसिद्ध बात ही तो शङ्करजी भी कहते हैं - "उमा कहउं मैं अनुभव अपना। सत हरिभजन जगत सब सपना।।" जाग्रत ही स्वप्न की भांति मिथ्या है तो स्वप्न कैसे सत्य हो सकता है? हमारा आपका अनुभव शङ्करजीके अनुभव से अधिक प्रामाणिक तो नहीं हो सकता। स्वप्नके शुभाशुभ का विचार वेदान्तका विषय ही नहीं है।
स्वप्नके कारण का विचार भी वेदान्तका विषय नहीं है। यहां विचार का विषय यह है कि स्वप्न में वस्तुयें और घटनायें विना हुये ही दिखती हैं और वस्तुतः जाग्रत में भी ऐसा ही है।