*वस्तुतः बाहर की चीजें भी हम मन के प्रकाशसे देखते हैं , आँख से नहीं।
*मन की गति बुद्धिके अनुसार होती है। वस्तुओं को मन से देखते हैं , मनको बुद्धि से।
*अपने आपको देखने के लिये मन बुद्धिकी भी आवश्यकता नहीं।
*जब अन्य किसी चीजको नहीं देखेंगे तब स्वतः अपने आप को देखेंगे। अन्य किसी चीजको न देखना ही चित्तवृत्तिका निरोध है।
*अपनेको देखनेके लिये किसी प्रकाशकी आवश्यकता नहीं। *स्वप्नमें सभी इन्द्रियां मन में लीन हो जाती हैं, केवल मन सक्रिय रहता है। मन ही नयी सृष्टि कर लेता है , यहां तक कि समय की भी सृष्टि कर लेता है।
*स्वप्न में समय का माप दूसरा हो जाता है, समय की गणित दूसरी हो जाती है।
* स्वप्नमें मन अपनेमें से ही अपना मित्र बनाता है अपनेमें से ही अपना शत्रु बनाता है और अन्य वस्तुयें बनाता है और क्रीणा करता है , हंसता है, रोता, चलता है , लडा़ई झगडा़ करता है ।
*गन्धको वास कहते हैं। वास ही वासना है। स्वप्नमें वस्तु नहीं होती किन्तु वस्तुकी वासना होती है। जैसे किसी पात्र में पुष्प या अन्य गन्धयुक्त वस्तु की वास उस वस्तुको हटा लेने पर भी शेष रहती है।