एपिसोड 527. आयुर्वेदमें सदाचार, भाग 11. पापज रोगोंमें से एक उन्मादरोग के कारण। (चरक संहिता, निदानस्थान,अध्याय 7.) * जो अपने पाप तथा दोषों से रहित होता है उसके शरीर में कोई देवता,गन्धर्व,पिशाच,राक्षस इत्यादि किसी प्रकारका रोग उत्पन्न नहीं करते। इसलिये अपने पापका फल भोगते समय देवता इत्यादिको दोष नहीं देना चाहिये। हित वस्तुओं का सेवन और हित आचरण यही देवता इत्यादि का पूजन है। * सामान्य उन्माद रोग के कारण। *आगन्तुक उन्माद के कारण - पूर्वजन्म के पाप तथा देवता, ऋषि, पितर,गंधर्व,यक्ष राक्षस,पिशाच,गुरु,बृद्ध,सिद्ध,आचार्य अथवा अन्य पूज्यजनों का अपमान।*उन्माद उत्पन्न होने के पूर्वलक्षण।*देवता दृष्टिमात्रसे तथा गुरु, बृद्ध, सिद्ध और ऋषि के शाप से, पितरोंके डराने से उन्माद रोग उत्पन्न होता है। गन्धर्व शरीर को स्पर्श कर, यक्ष शरीरमें प्रविष्ट होकर,राक्षस अपनी देहकी गन्ध सुंघाकर और पिशाच शरीरके ऊपर चढ़कर उन्माद रोगको उत्पन्न करते हैं। इन सबके आक्रमण के अलग अलग अवसर अथवा बहाने होते हैं। अर्थात् यह सब मनुष्यको उसके अपराधोंका दण्ड देने के लिये छिद्र खोजते हुयज घात लगाये रहते हैं। जब मनुष्य सदाचार सम्बन्धी नियमों का उल्लंघन करता है उसी समय ये आक्रमण कर उन्माद रोग को उत्पन्न कर देते हैं। इनका मुख्यतः दो प्रयोजन होता है - 1. रोगीमें आत्महत्या इत्यादि की प्रवृत्ति उत्पन्न कर उसकी हिंसा करना, और 2. पूजा अर्चना प्राप्त करना। इनमेंसे हिंसा के लिये उन्मादित रोगीको चरक संहिता में असाध्य कहा गया है और दूसरे वाले के लिये ओषधि के अतिरिक्त मंत्र, मणि, धर्मकर्म,बलि,भोजन इत्यादि कराना,हवन, व्रत, उपवास , प्रायश्चित्त, शान्तिकर्म, वन्दना/शरणागति,तीर्थयात्रा इत्यादि के द्वारा शान्ति कराने का परामर्श दिया गया है।