एपिसोड 553. योगवासिष्ठ, उपशम अध्याय 31-38। *प्रह्लाद का विचार( आत्मचिन्तन)। आत्मचिन्तन करते-करते 1 हजार वर्ष की समाधि। * प्रह्लाद के समाधिमें होने के कारण पाताललोक में अराजकता और दैत्यों के अत्यंत क्षीण तथा देवताओं के अत्यंत उत्कर्ष होने से भगवान् विष्णु की चिन्ता। *प्रह्लादकी समाधि छुडा़कर उनको द्वैताद्वैत का उपदेश देकर निष्कामकर्म में प्रवृत्त करने हेतु भगवान् विष्णु का प्रह्लाद के समक्ष प्रकट होना। हरिराशा हरिर्व्योम हरिरुर्वी हरिर्जगत्।
अहं हरिरमेयात्मा जातो विष्णुमयो ह्यहम्।।31/39।।
अविष्णुः पूजयन् विष्णुं न पूजाफलभाग्भवेत्।
विष्णुर्भूत्वा यजेद्विष्णुमयं विष्णुरहं स्थितः।।31/40।।
"नाविष्णुः पूजयेद्विष्णुं नाशिवः पूजयेच्छिवम्।"...
"आत्मनेऽस्तु नमो मह्यमविच्छिन्नचिदात्मने।"34/112।।
मह्यं तुभ्यमनन्ताय मह्यं तुभ्यंशिवात्मने।
नमो देवाधिदेवाय पराय परमात्मने।।34/114।।
वाच्यवाचक दृष्ट्यैव भेदो योऽयमिहाऽऽवयोः।
असत्या कल्पनैवेषा वीचिवीच्यम्भसोरिव।।36/8।।
दिष्ट्यामत्तामसि प्राप्तो दिष्ट्या त्वत्तामहं गतः।
अहं त्वं त्वमहं देव दिष्ट्या भेदोऽस्ति नाऽऽवयोः।।36/24।।
नमो मह्यमनन्ताय निरहंकाररूपिणे।
नमो मह्यमरूपाय नमः सम समात्मने।।36/26।। विचार करते-करते दैत्यराज प्रह्लाद आत्मस्वरूप में स्थित होकर एक हजार वर्ष तक समाधिस्थ हो गये। पाताललोक में अराजकता फैल गयी। देवताओं का उत्कर्ष होने लगा और दैत्य नष्टप्राय होने लगे। भगवान् विष्णु को यह देखकर चिन्ता हुयी। उन्होने विचार किया कि देवगण शत्रुरहित होने पर राग-द्वेष से रहित हो जायेंगे और मोक्ष पा लेंगे। वे राग-द्वेषरहित हो जायेंगे तो मनुष्य भी उनकी पूजा यज्ञ इत्यादि नहीं करेंगे। यज्ञ इत्यादि क्रियाओं के उच्छिन्न होने पर कर्मभूमि व्यर्थ हो जायेगी। इससे मेरी लीला ही असमय समाप्त हो जायेगी और इतना ही नहीं, सभी मनुष्य अनेक विना जन्मों तक निष्काम कर्म किये और मूल अविद्यारूप आवरण की निवृत्ति न होने के कारण तत्वसाक्षात्कार किये विना सुषुप्त की भांति पडे़ रहेंगे।अविद्या का बीज नष्ट न होने के कारण उनको परमश्रेय की प्राप्ति नहीं होगी। अतः देवताओ-दैत्यों का द्वन्द्व आवश्यक है। दैत्यों के भय से देवता सक्रिय होंगे और देवताओं के कारण यज्ञ आदि क्रियायें होंगी, उसी से संसार की स्थिति रहेगी।