एपिसोड 559, महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय 8। राजा शल्यसे दुर्योधनने छलपूर्वक सेवा करके सहायता का वचन लिया तो युधिष्ठिरने युद्धमें छलपूर्वक अर्जुनकी सहायता करने का वचन लिया। कैसे? पाण्डवों का सन्देश पाकर उनके मामा राजा शल्य (नकुल सहदेव की माता माद्री के भाई) विशाल सेना के साथ प्रस्थान किये। दुर्योधन को इस बातकी सूचना मिली तो उसने शल्य को अपने पक्ष में करने के लिये उनको बताये विना मार्ग में स्थान स्थान पर शल्य के स्वागत और विश्राम इत्यादि की भव्यातिभव्य व्यवस्था करा दिया। शल्य ने समझा कि यह व्यवस्था युधिष्ठिर की ओर से हुयी है। वे अत्यंत प्रसन्न होकर कहे कि युधिष्ठिर के जिन कर्मचारियों ने यह व्यवस्था की है , उन्हें मैं पुरस्कार देना चाहता हूँ, उसके लिये प्राण भी न्योछावर है।
दुर्योधन वहीं छुपा हुआ था। वह शल्य के सम्मुख प्रकट हुआ। शल्य ने उससे मनचाहा वरदान मांगने को कहा। दुर्योधन ने कहा आप मेरी सेनाके अधिपति हो जाइये।
तदुपरान्त शल्य युधिष्ठिर के पास पहुंचे और दुर्योधन को दिये गये वचन की बात बताये। युधिष्ठिर ने कहा आपने दुर्योधन का सेनाध्यक्ष बनना स्वीकार करके अच्छा ही किया और इस रूप में भी आप हमारी सहायता कर सकते हैं। वह कैसे? युधिष्ठिर ने कहा कि आप कुशल सारथि के रूप में श्रीकृष्ण के समान माने गये हैं। कर्ण और अर्जुन का जब द्वैरथ युद्ध होगा तो कौरव पक्ष निश्चय ही आपको कर्ण के सारथि का कार्य करने को कहेगा। उस समय आपको अर्जुन की रक्षा करनी होगी और इसके लिये आपको केवल यह करना होगा कि अपने शब्दों से कर्ण को हतोत्साहित करते रहें। शल्य ने युधिष्ठिर का यह अनुरोध स्वीकार कर लिया।
जब कर्ण और अर्जुन का युद्ध हुआ तो कर्ण के सारथि राजा शल्य उसे अपशब्द कहकर, लांछन लगाकर तथा अनेक प्रकार से अर्जुनसे हीन बताते हुये निरन्तर हतोत्साहित करते थे।