दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वती

एपिसोड 573. श्रीमद्भगवद्गीता 2/17.


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अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।17।।
( यह सम्पूर्ण जगत् आत्मासे व्याप्त है। वह आत्मा अविनाशी है। उसका नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं हो सकता।)
((नोट - उपदेश तो अभी ग्यारहवें श्लोक से आरम्भ हुआ है। आगे इस अध्याय के श्लोक बहत्तर तक और इसके उपरान्त पन्द्रह अध्याय शेष हैं। श्रोताओं की शंकाओं का समाधान आगे मिलता रहेगा। अभी पिछले श्लोक 16 के सम्बन्धमें एक मुख्य शंका यह होगी कि जब कह रहे हैं कि संसार का अस्तित्व ही नहीं है तो यह उपदेश किस लिये और युद्ध करने को क्यों कह रहे हैं? अथवा मैं , तुम, सारे योद्धा और सब कुछ ब्रह्म ही है तो कौन किससे कैसे युद्ध करेगा? संक्षेप में इसका उत्तर है कि परमार्थ दृष्टि से यह सब कुछ नहीं हैं। किन्तु व्वहार में तुम्हे दिखता है इसलिये व्यवहार में युद्ध करो । परमार्थ दृष्टि से यह नामरूपधारी तुम भी मिथ्या हो और तुम्हारा युद्ध करना भी मिथ्या है। यहां योगवासिष्ठ की उक्ति सटीक बैठती है -
"भावाद्वैतमुपाश्रित्य सत्ताद्वैतमयात्मकः।
कर्माद्वैतमनादृत्य द्वैताद्वैतमयो भव।।"
(अर्थात् अद्वैत में तो निरवयवता होगी उसमें कोई क्रिया नहीं हो सकती । अतः भावना से अद्वैतबुद्धि करते हुये उसी अद्वय आत्मा को सर्वत्र सबमें देखो। किन्तु क्रियामें अद्वैत की उपेक्षा करके अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार कर्तव्य का पालन करो। इस प्रकार द्वैताद्वैत होकर रहो।)
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दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वतीBy Sadashiva Brahmendranand Saraswati