एपिसोड 574 गीतामुक्तावली 2/18 ।
अन्त़वन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्स्व भारत।।
(ये शरीर नाशवान् हैं। और शरीरी अर्थात् आत्मा जो इन शरीरों में रहता है, वह नित्य , अविनाशी और अप्रमेय है। अतः हे भारत (हे ज्ञानपिपासु अर्जुन), तू युद्ध कर।)
शंका - आत्मा को नित्य कह दिये तो अविनाशी कहने की क्या आवश्यकता थी ?
समाधान - नित्य और अनादि तो अविद्या/माया भी है और आत्मा भी। किन्तु अविद्या अविनाशी नहीं । ज्ञान होने पर उसका नाश हो जाता है। अविद्या अनादि किन्तु अन्तवान् अर्थात् नाशवान् है। आत्मा का नाश नहीं होता। आत्मा अनादि भी है और अविनाशी भी है।
शेष व्याख्या आडियो में सुनें।