दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वती

एपिसोड 585 - देवीगीता (2)-देवीका विराट् रूप एवं उनके द्वारा ब्रह्मज्ञान का उपदेश।


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एपिसोड 585 देवीगीता (2) -
*भगवती द्वारा विराट रूप का प्रकट करना।
*वह चितिशक्ति समस्त जीवों में व्याप्त है किन्तु किसीसे लिप्त नहीं होती, उसी प्रकार जैसे सूर्य शुभ अशुभ सभी वस्तुओं को प्रकाशित करता है किन्तु कभी दूषित नहीं होता।
*जो कुछ भी देखने सुनने में आता है, वह सब भगवती से ही व्याप्त है।
*ब्रह्मा विष्णु महेश इत्यादि की स्वतंत्र वास्तविक सत्ता नहीं। यह भी भगवती की सत्ता में कल्पित हैं। यह भी रस्सी में सर्प की भांति केवल भ्रमवश प्रतीत होते हैं। इस भ्रम का अधिष्ठान भगवती है।
*भगवती का विराट् रूप।
*अविद्या , काम, कर्म। अविद्या/अज्ञान के कारण कामना उत्पन्न होती है । कामना की पूर्ति के लिये कर्म होता है। कर्म से उसके फल का बन्धन होता है। और उस फलकी प्राप्ति के लिये पुनः शरीर मिलता है। पुनः शरीर मिलने पर पुनः कामना कर्म और पुनः पुनः शरीर ..। इस प्रकार यह जीव जन्म मरण के चक्र में तब तक घूमता है, जब तक ज्ञान नहीं हो जाता। ज्ञान से अज्ञान मिट जाता है। अज्ञान मिटने पर कामना नहीं होती और उसकी पूर्ति के लिये कर्म नहीं होता। ज्ञान होनेके उपरान्त जो कर्म होता भी है, वह बन्धनकारी नहीं होता।
*ज्ञान और कर्म का समुच्चय नहीं होता। अज्ञान और कर्म का समुच्चय होता।
*समस्त वैदिक कर्म चित्त की शुद्धि के लिये हैं। अतः जब चित्त शुद्ध नहीं हो जाता और जब तक शम दम तितिक्षा वैराग्य और मोक्ष की तीव्र उत्कण्ठा नहीं उत्पन्न होती, तब तक कर्म करते रहना चाहिये।
*स्थूल, सूक्ष्म और कारण यह तीनों शरीर परमात्मा की ही उपाधियां हैं।
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दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वतीBy Sadashiva Brahmendranand Saraswati