व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्ध्योऽव्यवसायिनाम्।।41।।
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।42।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।43।।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापह तचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।44।।
(अनुवाद और व्याख्या आडियो में सुनें)
मुख्य विचारविन्दु ः-
*व्यवसाय किसे कहते हैं?
* व्यवसायात्मिका बुद्धि और अव्यवसायात्मिका बुद्धि क्या है?
*अव्यवसायात्मिका बुद्धि में बहुत और अनन्त शाखायें कहने का क्या तात्पर्य है? क्या बुद्धि में शाखायें होती है?
* क्या श्लोक 41 में अर्जुन को "कुरुनन्दन" शब्द से सम्बोधित करने का विशेष तात्पर्य है?। "कुरुनन्दन" शब्दकी इस श्लोक के वर्ण्यविषय से क्या संगति है?
*"वेदवाद" क्या है? क्या भगवान् श्रीकृष्ण वेदनिन्दक हैं ? *क्या श्रीमद्भागवत में गोवर्धनधारण प्रकरण और भगवद्गीता के दूसरे अध्यायका श्लोक 42 मिलकर भगवान् श्रीकृष्ण को वेदविरोधी और यज्ञविरोधी सिद्ध करते हैं?