दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वती

एपिसोड 602 गीतामुक्तावली 2/45


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त्रैगुण्यविषया वेदा निष्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्दो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।। * यहां वेद के कर्मकाण्ड भाग में वर्णित काम्यकर्मों को छोड़ने को कह रहे हैं। सकाम अनुष्ठान को छोड़ने की बात कर रहे हैं, नित्यकर्मों को छोड़ने का उपदेश नहीं है। * श्लोक के पूर्वार्ध में "निस्त्रैगुण्यो" का अर्थ निष्कामता से है, यदि शाब्दिक अर्थ लगायेंगे तो उत्तरार्ध में प्रयुक्त शब्द "नित्यसत्वस्थो" से विरोधाभास हो जायेगा। *यहां "अर्जुन" सम्बोधन करके उसकी निर्मलता को स्मरण दिलाते हुये "सत्व" में स्थित रहने को कह रहे हैं। अर्जुन शब्द के अनेक अर्थों में से एक है "शुक्ल" - जिसका वर्ण , हृदय और कर्म तीनों निर्मल हो। "शुक्लवर्णः
समानार्थक:शुक्ल,शुभ्र,शुचि,श्वेत,विशद,श्येत,पाण्डर,अवदात
"अवदातः सितो गौरो वलक्षो धवलोऽर्जुनः।
हरिणः पाण्डुरः पाण्डुरीषत्पाण्डुस्तु धूसरः॥"*निर्द्वन्द का अर्थ। *निर्योगक्षेम का अर्थ। *आत्मवान का अर्थ।
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दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वतीBy Sadashiva Brahmendranand Saraswati