"यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।46।।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।47।।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्धयसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।48।।"
*वेदों की आवश्यकता कब तक ?
*श्लोक 46 में "ब्राहण" शब्द का अर्थ ब्राह्मण वर्ण है अथवा अन्य कुछ?
*यहां किस प्रकार के कर्म और किस फल की बात कर रहे हैं?
*विना फल का विचार किये कर्म कैसे होगा? विना प्रयोजन के तो मूर्ख भी कोई कार्य नहीं करता!
*कर्म न करने में प्रवृत्ति न होना क्या है?
*योगस्थ किसे कहते हैं?
* समत्वयोग क्या है? "समत्व" योग का एक प्रकार है अथवा समत्व ही योग है?