दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वती

एपिसोड 609 मानसमुक्ता, बाल, दोहा 116 - 117


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*"सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।
अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेमबस सगुन सो होई।।
जो गुनरहित सगुन सोइ कैसे।
जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसे।।" * निर्गुण और सगुण वैसे ही हैं जैसे जल और बर्फ। निर्गुण निराकार ही भक्त की भावना के अनुसार सगूण आकार धारण कर लेता है।
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दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वतीBy Sadashiva Brahmendranand Saraswati