*"सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।
अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेमबस सगुन सो होई।।
जो गुनरहित सगुन सोइ कैसे।
जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसे।।" * निर्गुण और सगुण वैसे ही हैं जैसे जल और बर्फ। निर्गुण निराकार ही भक्त की भावना के अनुसार सगूण आकार धारण कर लेता है।