यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2/57।।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2/58।।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।2/59।।
विषय उतना नहीं बांधते जितना विषयासक्त मनुष्यों का संग। उसी प्रकार जैसे कडी़ धूप से अधिक ताप उस धूप में जलती हुयी रेत से होता है।
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