*भगवद्गीता और योगवासिष्ठ के अध्ययन सम्बन्धी तुलनात्मक सुझाव*
नारायण।
कभी कदाचित् हम योगवासिष्ठ महारामायण की चर्चा कर देते हैं। योगवासिष्ठ अत्यन्त गूढ़ ग्रन्थ है। वेदान्त की सम्यक् समझ हो जाने के उपरान्त ही इसको पढ़ना चाहिये।
ध्यातव्य है कि इस विशाल ग्रन्थ में गुरु वसिष्ठ द्वारा भगवान् राम को दिये गये उपदेश का वर्णन है।
भगवद्गीता और योगवासिष्ठ की पृष्ठभूमि में समानता यह है कि दोनों का उपदेश मोहग्रस्त क्षत्रिय को उसके कर्म में प्रवृत्त करने के लिये हुआ। अन्तर यह है कि भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण गुरु हैं और उनका सखा अर्जुन शिष्य, किन्तु योगवासिष्ठ में स्वयं भगवान् ही शिष्य हैं और उनके गुरु वसिष्ठ जी उपदेशक। अर्जुन के मोहयुक्त वैराग्य का तो प्रत्यक्ष लौकिक कारण था, किन्तु श्रीराम के वैराग्य का कोई लौकिक कारण ही नहीं था। वह आन्तरिक अथवा स्वाभाविक वैराग्य था। भगवद्गीता का उपदेश युद्धभूमि में कुछ ही समय में हुआ, जबकि योगवासिष्ठ का उपदेश न्यूनतम तीस दिन तक चला (subject to re-calculation) और प्रतिदिन पूर्वाह्न अपराह्न दोनों सत्रों में अर्थात् सम्पूर्ण दिवस चलता था। यदि आकार की दृष्टि से देखें तो भगवद्गीता जितना उपदेश प्रतिदिन करने पर यह 45 से 50 दिन में पूर्ण होता। विषय गूढ़ है और भगवान् राम के प्रश्न भी विस्तृत हैं अतः सम्पूर्ण दिवस उपदेश होने पर अनवरत तीस दिन लगा।
विचारणीय है कि स्वयं भगवान् मोहग्रस्त हुये तो वह मोह कितना जटिल रहा होगा?
कहने का तात्पर्य यह है गीता पढ़ने से ही बहुत से भावुक लोग अर्थ का अनर्थ करते हुये भ्रमित अथवा मोहग्रस्त हो जाते हैं- अपने कर्तव्य से विमुख होकर वैराग्य भाव में चले जाते हैं। ऐसे लोग योगवासिष्ठ पढ़ लेंगे तो क्या स्थिति होगी? इसलिये गीता और योगवासिष्ठ का ठीक तात्पर्य ज्ञानी गुरु से ही जानना चाहिये। स्वाध्याय का उचित व्यावहारिक क्रम यह है कि पहले श्रीरामचरित मानस पढे़ं, तदुपरान्त भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत इत्यादि उसके बाद उपनिषदग्रन्थ पढे़ं और अन्त में योगवासिष्ठ।
यह भी ध्यान दें कि वेदान्त में प्रवेश करने के लिये न्यायशास्त्र की आरम्भिक जानकारी आवश्यक है। शङ्कराचार्य के लघुग्रन्थों मणिरत्नमाला, तत्वबोधः इत्यादि का अध्ययन भी प्रस्थानत्रयी से पूर्व कर लेना चाहिये।