मानवजीवन का न्यूनतम एक चौथाई समय स्वप्नमें बीतता है। दिवास्वप्न अर्थात् जाग्रत की निरर्थक कल्पनाओं को भी इसमें जोड़ लें तो एक तिहाई से अधिक हो जायेगा। स्वप्नमें जाग्रत की अनुभूति नहीं होती , जाग्रतमें कुछ स्वप्नोंका स्मरण होता है। यद्यपि स्वप्न जाग्रतके संस्कारों पर ही आधारित होता है। जाग्रतका अभिमानी स्वप्नाभिमानी में लीन हो जाता है।