ज्ञानीसंन्यासी के लिये कर्म आवश्यक नहीं। क्योंकि उसे कर्म करने से कोई लाभ नहीं और न करने से कोई हानि नहीं। वह कर्म, उपासना, लोक, परलोक, ब्रह्मा विष्णु महेश अथवा किसी भी देवता का आश्रय नहीं लेता। उसे किसी फल की इच्छा नहीं, इसलिये उसमें अर्थव्यपाश्रय नहीं होता। उसमें देहवासना नहीं होती, अतः देह के लिये कोई कर्म करना नहीं बनता। वह शरीरयात्रा के लिये जो भिक्षाचरण करता है, वह भी शास्त्रमर्यादा के कारण। भिक्षाचरण में धर्मसेवा भी अन्तर्निहित होती है। श्लोक 18 में कहा है कि "नैव तस्य कृतेनार्थो न कृतेनेह कश्चन।" अर्थात् उसका न तो करने में कोई स्वार्थ है न ही न करने में।
किन्तु ध्यातव्य है कि भगवान् ने यह बात केवल ब्राह्मण ज्ञानी/संन्यासी के लिये कहा। संन्यासग्रहणपूर्वक कर्मत्याग केवल ब्राह्मण के लिये विहित है , ब्राह्मणत्वविशिष्ट ब्रह्मजिज्ञासु का ही संन्यासमें अधिकार है, अन्य वर्णों का नहीं। टीकाकारों ने पौराणिक उद्धरण दिया है -
"मुखजानामयं धर्मो यद्विष्णोर्लिंगधारणम्।
बाहुजातोरुजातानां नायं धर्मः प्रशस्यते।।"
अर्जुन ब्राह्मण नहीं है, अतः जनक इत्यादि राजाओं का दृष्टांत देते हुये अगले 3 श्लोकों (19,20,21) में कह रहे हैं कि तुम्हारा कल्याण कर्म से ही होगा, इसके अतिरिक्त लोकशिक्षण की दृष्टि से भी तुमको कर्म करना चाहिये, क्योंकि श्रेष्ठ लोग जैसा आचरण करते हैं उसी का अनुसरण सामान्यजन भी करते हैं।