नारदमोह प्रकरण का निहितार्थ - भक्ति और ज्ञान का सबसे बडा़ शत्रु है अहंकार। इन्द्र ने नारदजी की समाधि भंग करने के लिये कामदेव और रम्भा इत्यादि अप्सराओं को भेजा , वे सब सभी कलाओंका प्रयोग करके भी नारदजी को विचलित नहीं कर सके और शरणागत होकर क्षमा मांगे। नारद जी के लिये जैसे कुछ हुआ ही नहीं, उन्हे कामदेव इत्यादिके प्रति लेशमात्रभी रोष नहीं हुआ। किन्तु उन्हे इस बात का अहंकार हो गया कि मैंने काम और क्रोध दोनों को जीत लिया। यह अहंकार हो गया था कि मैं शंकरजी से भी बडा़ सिद्ध हो गया। शंकरजी ने काम को जीता किन्तु क्रोध को नहीं जीत पाये और उन्होने कामदेव को भस्म कर दिया था। मैंने तो दोनों को जीत लिया है। नारदजी इस सफलता से अत्मप्रशंसा करते हुये शंकरजी को जाकर बताये। शंकर जी ने कहा कि अपने से अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिये। हमसे बताये तो बताये, किन्तु भगवान् विष्णु से यह घटना मत बताइयेगा। किन्तु नारदजी को लगा कि शंकरजी को मुझसे ईर्ष्या हो रही है क्योंकि मैं इनसे आगे निकल गया हूँ। नारदजी ने जाकर ब्रह्माजी और भगवान् विष्णु को भी अभिमानपूर्वक बताया। भगवान् विष्णु ने विचार किया कि यह मेरा परमभक्त है, अतः इसके शत्रु अहंकार को नष्ट करना मेरा कर्तव्य है। सेवक का हित करना मेरा प्रण है। अतः उन्होने विश्वमोहिनी इत्यादि की माया रचकर नारदके अहंकार को नष्ट किया। नारद जीको जता दिया कि तुम न तो काम को जीत सके न क्रोध को। इस प्रकरणके पूर्व भगवती पार्वती ने पूंछा था कि नारद जैसे परमभक्त और ज्ञानीने अपने आराध्य को शाप क्यों दे दिया था? तब शंकरजी ने कहा था कि न कोई ज्ञानी है न मूढ़ । श्रीहरि जब जिसको जैसा कर देते हैं उस समय वह वैसा ही हो जाता है- "बोले विहंसि महेस तब ज्ञानी मूढ़ न कोइ। जेहिं जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहिं छन होइ।।" नारद जी द्वारा क्रोधित होकर भगवान् को मनुष्य होने, पत्नीवियोग होने और बन्दरोंसे सहायता लेने का शाप देने के उपरान्त भगवान् ने माया को वापस खींच लिया।