दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वती

Episode 645. Bhagvadgeeta,3/26 and 29


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न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।26।।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।29।।
*श्लोक 26 की व्याख्या दो दिन पूर्व एपिसोड 641 में कर चुके हैं । श्लोक 29 उसी का पूरक है।
*श्लोक 28 (एपिसोड 643) में गुणविभाग और कर्मविभाग बतलाये और बतलाये कि जो गुणकर्मविभागों को जानता है वह तत्ववित् है। वह कर्मों में आसक्त नहीं होता। गुणकर्मविभाग को और अधिक स्पष्टता से समझने के लिये आचार्य शङ्करभग़त्पादकृत तत्वबोधः नामक लघुग्रन्थ देखना चाहिये जिसकी व्याख्या अक्षय सन्निधानम् समूह के पुराने सदस्य दो वर्ष पूर्व voice clip में सुन चुके हैं।
*29वें श्लोक में बताते हैं कि तत्ववित् को चाहिये कि जो प्रकृति के गुणों से मोहित होने के कारण शरीर को ही अपना स्वरूप समझते हैं और कर्मासक्त/फलासक्त हैं उनको उनके सत्कर्म से विचलित न करे। क्योंकि उनके सकाम कर्मों को हेय बताने से और वेदान्त का उपदेश करने से उनको ज्ञान तो होगा नहीं, कर्म भी छूट जायेगा। अतः सामान्य लोगों को सत्कर्म करना ही चाहिये चाहे निष्काम न होकर कामना पूर्वक ही करें।
*कृत्स्तवित् = पूर्णवित्, समग्रदृष्टि वाला, तत्ववित्, आत्मवित्। अकृत्स्नवित् = अपूर्णवित्, संकीर्णदृष्टि वाला, अनात्मवित्।
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दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वतीBy Sadashiva Brahmendranand Saraswati