दुर्जनों और मूर्खों द्वारा की जाने वाली निन्दासे क्षुब्ध नहीं होना चाहिये। बहुसंख्या तो मूर्खोंकी ही होती है। निन्दासे संन्यासी/ज्ञानीके पापकर्म नष्ट होते हैं। संन्यासी कर्म और कर्मफलसे सर्वथा मुक्त होता है। उससे शरीरयात्रा और लोककल्याण के कार्यमें यदि कोई दोष हो भी जाता है तो उसका फल निन्दकों के पास चला जाता है और संन्यासीसे जो कुछ पुण्यकर्म होता है उसका फल उसके शिष्यों, सेवकों और प्रशंसकों के पास चला जाता है। इस प्रकार संन्यासी पुण्य-पाप या शुभ-अशुभ दोनों से मुक्त होकर परमात्मामें लीन होता है।