अब तक श्रीरामचरितमानस का मङ्गलाचरण हुआ।
अब रामकथा की गुरुपरम्परा अथवा श्रोत बताते हैं- शङ्करजी मूल रचनाकार हैं। उन्होने पार्वतीजी को सुनाया और उन्होने ही काकभुसुण्डिको दिया। शङ्करजी ने ही लोमश ऋषिको सुनाया तथा लोमश ऋषिको प्रेरित करके काकभुसुण्डि को सुनवाया। काकभुसुण्डि से ( अथवा शङ्कर जी से ?) याज्ञवल्क्य ऋषि ने पाया। याज्ञवल्क्य जी ने भरद्वाज ऋषि को सुनाया। यहां सुनाई/सुनावा, दीन्हा, पावा और गावा शब्दों का प्रयोग उनके अपने-अपने विशिष्ट आर्थों में प्रतीत होता है। "जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई।। ... संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा।। सोइ सिव कागभुसुण्डिहि दीन्हा। रामभगति अधिकारी चीन्हा।। तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा।।"
अब गाने का अर्थ तो सार्वजनिक रूपसे प्रकाशित करने से होगा। तदुपरान्त जनसामान्यमें कथा कहने सुनने की परम्परा चल पडी़ और अपने समय में तुलसीदासजी ने अपने गुरुके सत्संग सभामें सुना।
" मैं पुनि निज गुर सन सुनी, कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं तसि बालपन, तब अति रहेउं अचेत।।"