बार बार कहने सुनने से कठिन विषय भी समझमें आ जाता है। फिर उसको अपने शब्दोंमें लिखनेसे शंकायें प्रकट होती हैं और उनका समाधान होता है। इसलिये गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा।। भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरे मन प्रबोध जेहिं होई।। मंगलाचरण में आरम्भ में ही कह चुके हैं - स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति।