Mukesh Kumar Soni

मेरा गांव


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अब मैं बचपन को छोड़ 
चालीस का हो चला 
और देखते ही देखते 
बचपन का आनंद 
खो चला। 
वह बागों में जाकर 
खेलना भी लुप्त हुआ 
वह गुल्ली और डंडा भी 
ना जाने कहां गुप्त हुआ?
घीस्सू,मुन्ना और राजू 
अब वहां रहे ही नहीं 
चुपके से कहां चले गए?
किसी से कहें ही नहीं। 
आम के पेड़ पुराने भी 
नहीं कहीं अब दिखे 
हम सखा मिलजुलकर 
फल जिसके कभी थे चखे। 
बागों में वह भरा कोलाहल 
ना जाने कहां चला गया?
किसकी न जाने आह लगी?
किससे न जाने छला गया?
भूल सकता है कैसे कोई 
सूर काका को?
उनके कहानियों के जिन
और उनके आका को। 
चिड़ियों का मधुर कलरव 
अब सुनाई नहीं देती 
एक तितली दूर-दूर तक
दिखाई नहीं देती।
आज भी वह बूढ़ा पीपल 
अपने ही जगह खड़ा है 
पर उसके नीचे
वह हंसते छोटे-छोटे बच्चे कहां है?
खेत खलिहान ही हर पल
ठिकाना होता था 
गाय-भैंसों को तो चराना
एक बहाना होता था।
कितना सुंदर और अच्छा 
था मेरा वह गांव 
छाई रहती थी जहां 
बस अमिया की मीठी छाव।
इतना बदलाव 
मेरे गांव का हुआ कैसे?
परिवर्तन का यह बीज 
इतनी जल्दी! बुआ कैसी?
MUKESH KUMAR SONI
NET Qualified in Yoga
M.A. in Yoga,M.A. in Hindi,
Post Graduate in Yoga and Naturopathy
M-9836783469,9088102430
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