आप सून रहें हैं अपने वाचक बनारसी सिंह को. आज की कहानी है मणिकर्णिका घाट के नामकरण की और महाश्मशान नाम की. शिव जी देवी पार्वती के साथ काशी आते हैं अपने विहार के बाद तब श्री हरि से तप साधना रोकने और बैकुंठ जाने का अवरोध करते हैं. तब श्री हरि शिव से दो वर मांगते हैं पहला कि प्रलय काल में भी यह धरा नष्ट न हो. आप इसका संरक्षण करो. और दुसरा कि इस कुण्ड में जहाँ मैंने ध्यान और तप किया है वहाँ जो भी सच्चे मन से आपको पुकारे उसे आप मोक्ष प्रदान करो. जाने से पूर्व श्री हरि ने एक कुण्ड बनाया उसमें तप से जल भरा. यह मणिकर्णिका कुण्ड कहलाता है. इस कुण्ड में देवी पार्वती और शिव ने जल क्रिडा किया था तभी शिव जी को अपने पास अधिक समय तक रोकने की मंशा से देवी पार्वती ने अपने कान का कुण्डल कुण्ड में छुपा दिया था जिसे खोजने की जिम्मेदारी शिव जी की थी. इस कुण्डल के नाम पर इस कुण्ड का नाम मणिकर्णिका पड़ा. अन्य कथा के अनुसार जब सती ने अग्नि दाह किया अपने पिता के यज्ञ में तब उनके शव का अन्तिम क्रिया यहाँ इसी घाट पर शिव जी ने किया था इसलिए तब से यह घाट महाश्मशान घाट बन गया. जहाँ कभी शव अग्नि शांत नहीं होती. इस घाट पर 1585 में आमेर राजा सवाई मान सिंह ने एक मंदिर बनावाया और काशी में ज्ञान और संगीत परंपरा को अमर करने के लिए शिव को प्रसन्न करने के लिए एक उत्सव का आयोजन किया जिसमें सभी कलाकार बुलाये गये पर कोई भी भय के कारण और शमशान होने के कारण नहीं पहुंचा तब राजा ने नगर वधुओं से यहाँ नृत्य और संगीत का आयोजन करवाया. नगर वधुओं ने जलती चिता के मध्य रात्रि भर नृत्य कर शिव के नटराज स्वरूप की आराधना की और इच्छा कि इस जीवन के उपरांत वो कभी भी नगर वधुओं के रूप में जन्म ना ले भगवान उन्हें मोक्ष दें. तब से श्मशान नाथ महोत्सव मणिकर्णिका घाट पर हर वर्ष मनाया जाता है. हर हर महादेव... यह थी 16 वी कथा काशी शहर-ए-बनारस के जीवन की. आगे कुछ और अनजानी और अनसुनी कथा और कहानी सुनाउंगी. कुछ अवसर के लिए धन्यवाद... स्वस्थ रहे सुरक्षित रहे. नमःपार्वती पतये हर हर महादेव.....