Mukesh Kumar Soni

प्रेम योग भाग 2


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।।१४।।
अलकों-पलकों की कथाएँ,
कहूँ क्या मैं सबको,
मैं रोज गगन छूता हूँ
मिला हूँ जब से उनको।
।।१५।।
सुनाने को सुना मैं दू पर
कौन सुनेगा यह कहानी?
बात ही कुछ ऐसी है
जैसे हो बहता पानी।
।।१६।।
कैसे मैं सुनाऊँ सबको,
अपनी यह प्रेम कहानी,
कोई प्रमाण नहीं है,
न है कोई भी निशानी।
।।१७।।
दुविधा के उन क्षणों में,
जब मैंने उनको देखा,
तब से उनको है माना,
अपने जीवन की रेखा।
।।१८।।
उनकी आँखें अब हर पल,
मुझको घेरा करती है
कुछ जानी कुछ अनजानी,
सैकड़ों बातें करती है।
।।१९।।
अब मेरे शून्य हृदय में,
बस उनका है डेरा,
हर पल उनको मैं देखूँ,
चाहे हो शाम-सबेरा।
।।२०।।
मेरे मानस के पट पर,
एक उनकी छवि है छाई,
हँस कर क्या वो आई,
मुझको कवि बनाई।
।।२१।।
दिवस खुश-नुमा है लगता,
उनके बस आ जाने से,
सातों सूर है बजती,
केसों के लहराने से।
।।२२।।
व्यथित हृदय की गाँठें,
एक-एक छूट जाती है,
पास मेरे लहरा कर,
जब-जब वो आ जाती है।
।।२३।।
हृदय खिल उठा ऐसे,
जैसे बाग में कलियाँ,
कोलाहल सा अब लगता,
जीवन की हर एक गलियाँ।
।।२४।।
उजड़ी है सारी नगरी,
बसा एक मन मेरा,
और मेरे इस मन में,
बस उनका है डेरा ।
।।२५।।
सागर की बोझिल लहरें,
उठती है गिर जाने को,
मैं रोज उठा करता हूँ,
बस उनको पाने को।
।।२६।।
कितनी बाते और कहूँ,
अपने उस छाया की,
हर पग पर है दीप जले,
आने से उस काया की ।
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