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प्रेम योग भाग 3

।।२७।।
हँस-हँस कर, रो-रो कर
करता हूँ उनसे बातें।
अब उनकी ही यादों में,
कटती है अपनी रातें।
।।२८।।
वह खूब घड़ी थी शायद
जब हमसे वे मिले थे
तब मेरे भी बगियाँ में
कुछ सुन्दर फूल खिले थे।
।।२९।।
हँसने रोने की उनकी,
हर एक अदा है निराली,
आकर जरा तो देखो
है वो कितनी भोली-भाली।
।।३०।।
उनके श्यामल छवि का,
हो गया हूँ मैं तो कायल,
साधारण प्रेमी जैसा,
मैं भी हुआ हूँ घायल।
।।३१।।
कब सोचा था मैंने,
एक ऐसा संसार मिलेगा,
चाहत की फुलवारी होगी,
मुझको भी प्यार मिलेगा।
।।३२।।
जाने अनजाने ही सही,
सबको हो जाता है,
कोई भा जाता है,
और प्रेम योग होता है।
।।३३।।
सौ दोष देखकर फिर भी,
एक दोष मान न पाऊँ,
सांसों में भर-भर उनको,
मैं बस गाता जाऊँ।
।। ३४।।
कभी हँसकर, कभी बलखाकर,
बाहों से लिपट जाती है,
और कभी इतराती,
वह दूर चली जाती है ।
।।३५।।
मीठी-मीठी बातों की
करती वह कितनी वर्षा
सोच-सोच उन बातों को,
जाता मन फिर से हर्षा ।
।।३६।।
उनकी सुन्दरता ने ही तो
विकसित किया कला को,
मैं मस्त हुआ फिरता हूँ
पी कर इस प्याला को।
।।३७।।
सब कुछ उनको दे डाला,
जीवन के सुख को हर कर
वह चाहे तो सजाले इनको
अपने दामन में भर कर।
।।३८।।
परिचित तो नहीं लगे थे,
जब आये थे जीवन में,
जाने फिर कैसे-कैसे
समा गये इस मन में ।
।।३९।।
सपनों में आकर मेरे,
वह मुझे जगा देती है,
आँखों से भर-भर प्याली,
वह मुझे पिला देती है।
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By Mukesh Kumar Soni
प्रेम योग भाग 3

।।२७।।
हँस-हँस कर, रो-रो कर
करता हूँ उनसे बातें।
अब उनकी ही यादों में,
कटती है अपनी रातें।
।।२८।।
वह खूब घड़ी थी शायद
जब हमसे वे मिले थे
तब मेरे भी बगियाँ में
कुछ सुन्दर फूल खिले थे।
।।२९।।
हँसने रोने की उनकी,
हर एक अदा है निराली,
आकर जरा तो देखो
है वो कितनी भोली-भाली।
।।३०।।
उनके श्यामल छवि का,
हो गया हूँ मैं तो कायल,
साधारण प्रेमी जैसा,
मैं भी हुआ हूँ घायल।
।।३१।।
कब सोचा था मैंने,
एक ऐसा संसार मिलेगा,
चाहत की फुलवारी होगी,
मुझको भी प्यार मिलेगा।
।।३२।।
जाने अनजाने ही सही,
सबको हो जाता है,
कोई भा जाता है,
और प्रेम योग होता है।
।।३३।।
सौ दोष देखकर फिर भी,
एक दोष मान न पाऊँ,
सांसों में भर-भर उनको,
मैं बस गाता जाऊँ।
।। ३४।।
कभी हँसकर, कभी बलखाकर,
बाहों से लिपट जाती है,
और कभी इतराती,
वह दूर चली जाती है ।
।।३५।।
मीठी-मीठी बातों की
करती वह कितनी वर्षा
सोच-सोच उन बातों को,
जाता मन फिर से हर्षा ।
।।३६।।
उनकी सुन्दरता ने ही तो
विकसित किया कला को,
मैं मस्त हुआ फिरता हूँ
पी कर इस प्याला को।
।।३७।।
सब कुछ उनको दे डाला,
जीवन के सुख को हर कर
वह चाहे तो सजाले इनको
अपने दामन में भर कर।
।।३८।।
परिचित तो नहीं लगे थे,
जब आये थे जीवन में,
जाने फिर कैसे-कैसे
समा गये इस मन में ।
।।३९।।
सपनों में आकर मेरे,
वह मुझे जगा देती है,
आँखों से भर-भर प्याली,
वह मुझे पिला देती है।
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