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प्रेमयोग भाग 4

।।४०।।
मुर्झा न पाये जो कभी
ऐसी है प्रेम की माला,
जीवन है गुलबाग बना,
जब से अपने पर डाला।
।।४१।।
चुपके से आकर उसने,
की है दिल की चोरी
लिख डाली प्यार की लिपि,
जो थी अभी तक कोरी।
।।४२।।
सपनों में उनको देखूं,
जाने कैसी है निद्रा
प्रेम सुधा बरसाए
ऐसी उनकी है मुद्रा।
।।४३।।
पाषाण बने कोई दिल से
कैसे प्यार को जाने
फूलों सा जिनका दिल हो,
बस वही प्यार को माने।
।।४४।।
लहराये बलखाये,
जैसे हो कोई सरिता
होठों से अपने हँस - हँस,
देती है मुझको कविता।
।।४५।।
कोई भी उत्सव हो मगर,
दिल को खुशी नहीं है
उनकी हँसी जहाँ है
मेरी खुशी वही है।
।।४६।।
फूलों की झड़ी लग जाये
जब भी मुझसे वो बोले,
जो हाथ रखे मेरे मन पे,
धरती-अम्बर सब डोले।
।।४७।।
फूलों की हो बगियाँ,
और उसमें फूल नहीं हो
वह प्यार-प्यार है कैसा,
जिसमें शूल नहीं हो।
।।४८।।
हाँ,कह सकते इसको हो
यह प्यार नहीं, धोखा है!
पर हमने तो सच मानो
जन्नत इसमें देखा है।
।। ४९।।
यह खेल है जाने कैसा
जिसको कभी न जीता
कौन सफल हो पाया,
क्या राधा - क्या सीता !
।।५०।।
खुशबू जाने कैसी है
उनके कोमल तन का
एक खेल बना है अब तो
मेरे इस चंचल मन का।
।।५१।।
जीवन के आपाधापी में,
साथी कब ऐसे मिलते हैं,
सदियों से बंजर धरती पर,
जो फूल बन खिलते हैं।
।।५२।।
कभी अन्त नहीं हो पाता
जाने कैसी है क्रीड़ा
मधुर-मधुर है होती
यह मंद प्रेम की पीड़ा ।
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By Mukesh Kumar Soni
प्रेमयोग भाग 4

।।४०।।
मुर्झा न पाये जो कभी
ऐसी है प्रेम की माला,
जीवन है गुलबाग बना,
जब से अपने पर डाला।
।।४१।।
चुपके से आकर उसने,
की है दिल की चोरी
लिख डाली प्यार की लिपि,
जो थी अभी तक कोरी।
।।४२।।
सपनों में उनको देखूं,
जाने कैसी है निद्रा
प्रेम सुधा बरसाए
ऐसी उनकी है मुद्रा।
।।४३।।
पाषाण बने कोई दिल से
कैसे प्यार को जाने
फूलों सा जिनका दिल हो,
बस वही प्यार को माने।
।।४४।।
लहराये बलखाये,
जैसे हो कोई सरिता
होठों से अपने हँस - हँस,
देती है मुझको कविता।
।।४५।।
कोई भी उत्सव हो मगर,
दिल को खुशी नहीं है
उनकी हँसी जहाँ है
मेरी खुशी वही है।
।।४६।।
फूलों की झड़ी लग जाये
जब भी मुझसे वो बोले,
जो हाथ रखे मेरे मन पे,
धरती-अम्बर सब डोले।
।।४७।।
फूलों की हो बगियाँ,
और उसमें फूल नहीं हो
वह प्यार-प्यार है कैसा,
जिसमें शूल नहीं हो।
।।४८।।
हाँ,कह सकते इसको हो
यह प्यार नहीं, धोखा है!
पर हमने तो सच मानो
जन्नत इसमें देखा है।
।। ४९।।
यह खेल है जाने कैसा
जिसको कभी न जीता
कौन सफल हो पाया,
क्या राधा - क्या सीता !
।।५०।।
खुशबू जाने कैसी है
उनके कोमल तन का
एक खेल बना है अब तो
मेरे इस चंचल मन का।
।।५१।।
जीवन के आपाधापी में,
साथी कब ऐसे मिलते हैं,
सदियों से बंजर धरती पर,
जो फूल बन खिलते हैं।
।।५२।।
कभी अन्त नहीं हो पाता
जाने कैसी है क्रीड़ा
मधुर-मधुर है होती
यह मंद प्रेम की पीड़ा ।
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