अयोध्या में तीनों रानियाँ बारात वापसी की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही हैं। किन्तु राजा जनक व पूरी बारात लम्बी अवधि से मिथिला में अतिथि बनकर रूकी हुई है। मंझली रानी कैकेयी का मत है कि महाराज दशरथ वरपक्ष वाले हैं, वे अधिकारपूर्वक बारात विदा करने की बात राजा जनक से कह सकते हैं। उधर मिथिला में मंत्री सुमन्त का भी यही भाव है किन्तु दशरथ राजा जनक के इस दर्द को समझते हैं कि एक पिता के लिये अपनी बेटी को विदा करना कितना कठिन होता है। तब सुमन्त उन्हें राजधर्म का स्मरण कराते हैं। आखिरकार ऋषि विश्वामित्र और ऋषि शतानन्द द्वारा सांसारिक नियम समझाने पर राजा जनक चारों पुत्रियों को विदा करने पर सहमत होते हैं। रनिवास में रानी सुनयना चारों पुत्रियों को नारी धर्म की शिक्षा देती हैं। पति, सास और ससुर की सेवा करने और ससुराल का मान रखने की सीख भी देती हैं। राम अपने तीनों भाईयों के साथ विदाई कराने रनिवास पहुँचते हैं। राजा जनक भाव विहवल ढंग से अपनी बेटियाँ राजा दशरथ को सौंपते हुए उनकी किसी भी गलती पर क्षमा करने की गुहार करते हैं। राजा दशरथ विनय भाव से घोषणा करते हैं कि सीता आने वाले समय में अयोध्या की महारानी बनेंगी इसलिये उसका आदर सत्कार किसी रानी की भाँति होगा। अपनी दुलारी सीता को डोली में बैठाते समय जनक उसे ससुराल में मायके की कीर्ति को नष्ट न होने देने की सीख देते हैं। बारात वापसी का अयोध्या में भव्य स्वागत होता है। अयोध्या स्वयं को धन्य महसूस करती है। द्वारचार पश्चात गुरू वशिष्ठ कुल देवता सूर्य का पूजन सम्पन्न कराते हैं। रानियाँ अपने चारों पुत्रों व पुत्रवधुओं के बीच दूध भात खिलाने की रस्म अदा कराती हैं। राम दूध भरे पात्र से कंगन ढूँढने की रस्म में सीता को जीतने देते हैं। भाईयों के बीच खूब चुहल होती है। प्रथम मिलन की रात्रि राम सीता को एक अनूठा उपहार देते हैं। वे कहते हैं कि राजकुलों में बहुविवाह की परम्परा है किन्तु उन्होंने सीता को अर्धांगिनी बनाना स्वीकार कर एक पत्नीव्रत की प्रतिज्ञा की है। अन्त में रामानन्द सागर अपनी मीमांसा में बताते हैं कि रामायण में इस प्रसंग के साथ बालकाण्ड का समापन होता है।
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