राजमहल में सीता को राम के राज्याभिषेक की सूचना लक्ष्मण द्वारा मिलती है। राम भाईयों के साथ राजपाट चलाने की इच्छा रखते हैं किन्तु कुल परम्परानुसार उन्हें ही युवराज घोषित किया गया है। नगर में उनके राज्याभिषेक का ढिंढोरा बजता है। चारों ओर उत्सव सा महौल है। प्रजा गली चौक, खेत खलिहानों में बधाई गीत गाती दिखती है। पूरी अयोध्या नववधू की तरह सजायी जा रही है। यह दृश्य देखकर कैकेयी की कुबड़ी दासी मंथरा झुंझला जाती है। वो आपे से बाहर होकर उत्सव भंग करती है। वो रानी कैकेयी के महल में जाती है और उन्हें राम के राज्याभिषेक के विरूद्ध भड़काती है। वो कैकेयी के दिमाग में भर देती है कि राजा बनने के बाद राम का अपने भाईयों के प्रति प्रेम जाता रहेगा और वो उन्हें अपने मार्ग के कांटे की तरह साफ कर देगा। राजा राम की माँ कौशल्या अपनी सौत कैकेयी को दासी बनाकर रखेगी। मंथरा कैकेयी के अन्दर भरत को राजा बनाने का सपना दिखाती है और अपनी कुटिल बुद्धि से एक षडयन्त्र रचते हुए उन्हें राजा दशरथ के दिये दो वचनों का स्मरण कराती है। एक बार देवासुर संग्राम में राजा दशरथ असुरों के प्रहार से मूर्च्छित हो गये थे। उनकी सारथी बनी कैकेयी उन्हें रथ समेत सुरक्षित युद्धभूमि से बाहर ले गयी थी और उनके घाव भी ठीक किये थे। तब दशरथ ने उन्हें कभी भी दो वरदान माँग लेने का वचन दिया था। मंथरा कैकेयी से कहती है कि अब राजा दशरथ को उन दो वरदानों की याद दिला कर पहले से भरत के राजतिलक और दूसरे से राम को चौदह वर्ष के लिये वनवास भेजने के माँग करे। राम के वनवास को लेकर कैकेयी का मन दुविधा से भरता है लेकिन मंथरा उन्हें समझाती है कि भरत के निष्कंटक राज के लिये राम का अयोध्या से दूर रहना आवश्यक है। कैकेयी दम्भपूर्व स्वर में दासी को राजा दशरथ को बुलाने के लिये भेजती है। प्रहरी उसे दशरथ के कक्ष में नहीं जाने देता। तब मंथरा के सिखाने पर कैकेयी त्रिया चरित्र दिखाते हुए कोप भवन में चली जाती है। दशरथ कैकेयी के कोप भवन में जाने की सूचना पाकर परेशान होते हैं।
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