मंथरा के उकसाने पर रानी कैकेयी श्रृंगार त्याग कर कोप भवन में है। राजा दशरथ वहाँ आते हैं। कैकेयी उलाहना देते हुए दशरथ को दो वरदानों का स्मरण कराती है। दशरथ प्राण देकर भी अपने वचन पूरा करने का प्रण करते हैं। इसके लिये वे राम की सौगन्ध भी लेते हैं। उधर लक्ष्मण पत्नी उर्मिला के समक्ष भावी रामराज्य में अपने कर्तव्यों का बखान करते हैं। उर्मिला उन्हें पत्नी के प्रति होने वाले कर्तव्यों का स्मरण कराती हैं। रानी कैकेयी पूरे साज श्रृंगार के साथ दशरथ के समक्ष आती है। वो इठलाते हुए पहले वरदान में राम के स्थान पर अपने पुत्र भरत के लिये अयोध्या का राज माँगती है। दूसरे वरदान में वो राम को तपस्वी वेश में चौदह वर्ष का वनवास माँगती है। दशरथ रानी की इस माँग पर स्तब्ध होते हैं। वे कैकेयी को समझाने का भरपूर प्रयास करते हैं। कैकेयी उन्हें वचन तोड़ने का उलाहना देती है। दशरथ को पछतावा होता है कि उन्होने कैकेयी को पहचानने में भूल कर दी। उन्हें स्त्री की अनुचित माँग पूरी करने पर जगहँसाई होने का भी भय है। कैकेयी कहती है कि यदि राम का राज्याभिषेक हुआ तो वो मृत्यु का वरण कर लेगी। दशरथ भरत को राजा बनाने को तैयार होते हैं लेकिन वे कैकेयी से राम को वनवास भेजने की हठ त्यागने को कहते हैं। वे कैकेयी के पैरों पर गिरते हैं। तब कैकेयी दशरथ पर अपनी कठोर वाणी का अन्तिम बाण चलाते हुए उलाहने देती है। दशरथ मूर्च्छित होकर गिर पड़ते हैं। अगली सुबह उनकी मूर्छा प्रभात गीत से टूटती है। वे राम को पुकारते हैं। उधर राजमहल में राम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ लगभग पूर्ण हैं लेकिन दशरथ के न पहुँचने और पुष्य नक्षत्र बीतते जाने से महर्षि वशिष्ठ चिन्तित हैं। मंत्री सुमन्त उनका सन्देश लेकर कैकेयी भवन में दशरथ के पास पहुँचते हैं। कैकेयी उन्हें पहले राम को बुला लाने का आदेश देती है। सुमन्त से सन्देश पाकर राम पिता से मिलने कैकेयी भवन की ओर प्रस्थान करते हैं।
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