अपने वचनों से बंधे राजा दशरथ कैकेयी भवन में निढ़ाल पड़े हैं। उनका बुलावा पाकर राम वहा पहुँचते हैं। वे पिता को पीड़ा में देखकर माता कैकेयी से इसका कारण पूछते हैं। कैकयी कड़वे वचन बोलती है। वो कहती है कि उनके पिता ने उसे दो वर दिये थे। अब यह वर पूरे करने में उनका पुत्र मोह आड़े आ रहा है। लेकिन यदि वर पूरे नहीं करते हैं तो धर्म और सत्य पर कलंक लगता है। राम के पूछने पर कैकेयी भरत के राजतिलक और उनके वनागमन का वरदान माँगने की बात बताती है। राम दोनों वरदानों को अपने लिये शुभंकारी बताते हैं। राम कहते हैं कि भरत जैसे भाई को राजपाट देने में उन्हें कोई संकोच नहीं है और वनवास के दौरान तेजस्वी ऋषियों मुनियों के बीच रहना तो उनके लिये कल्याणकारी होगा। राम माता कौशल्या और सुमित्रा से वनागमन के लिये आज्ञा लेने हेतु कैकेयी भवन से प्रस्थान करते हैं। वे द्वार पर राजछत्र का त्याग कर संकेत देते हैं कि अब वे राजा नहीं बनने जा रहे हैं। राम माता कौशल्या को पिता के वचन के बारे में बताते हैं और वनागमन के लिये विदा करने को कहते हैं। कौशल्या को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता। वे चक्कर खा जाती हैं। उनके हाथों से पूजा का थाल गिर जाता है। राम उन्हें सम्भालते हैं, रघुकुल की रीति का स्मरण कराते हैं। कैकेयी के वरदान का समाचार सीता तक भी पहुँचता है। वे माता कौशल्या के भवन में आती है और घोषणा करती हैं कि पत्नी धर्म निभाने के लिये वे भी वन जायेंगी। राम मना कर देते हैं। इस पर सीता अपनी चिता जलाने की बात कहकर उन्हें राजी कर लेती हैं। तभी लक्ष्मण हाथों में धनुष बाण लेकर वहाँ पहुचते हैं और कैकेयी के प्रति कटु वचन बोलते हैं। लक्ष्मण भरत को राज्य दिये जाने पर विद्रोह का ऐलान कर देते हैं। राम इससे नाराज होते हैं। वे लक्ष्मण को पिता दशरथ के धर्म संकट और माता कैकेयी की कुबुद्धि के पीछे प्रारब्ध के खेल को समझाते हैं। तब लक्ष्मण भी भैया राम के साथ वन जाने का हठ करते हैं। राम इनकार करते हैं लेकिन तभी छोटी माता सुमित्रा का वहाँ आगमन होता है और वे लक्ष्मण को आदेश देती हैं कि वो राम के साथ वन जायें और उनकी सेवा करें। अब राम ही उनके पिता हैं और सीता माता। लक्ष्मण अपनी माँ पर गर्व करते हैं। कौशल्या को इससे सांत्वना मिलती है। वे लक्ष्मण को सुमित्रा और उर्मिला की धरोहर बताती है और राम से लक्ष्मण की सकुशल वापसी का वचन लेती हैं।
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