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इन्द्र॒ वाजे॑षु नोऽव स॒हस्र॑प्रधनेषु च। उ॒ग्र उ॒ग्राभि॑रू॒तिभिः॑॥
- ऋग्वेद (1.7.4)
हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्य देनेवाले जगदीश्वर ! (उग्रः) सब प्रकार से अनन्त पराक्रमवान् आप (सहस्रप्रधनेषु) असंख्यात धन को देनेवाले चक्रवर्त्ति राज्य को सिद्ध करनेवाले (वाजेषु) महायुद्धों में (उग्राभिः) अत्यन्त सुख देनेवाली (ऊतिभिः) उत्तम-उत्तम पदार्थों की प्राप्ति तथा पदार्थों के विज्ञान और आनन्द में प्रवेश कराने से हम लोगों की (अव) रक्षा कीजिये॥४॥
परमेश्वर का यह स्वभाव है कि युद्ध करनेवाले धर्मात्मा पुरुषों पर अपनी कृपा करता है और आलसियों पर नहीं। इसी से जो मनुष्य जितेन्द्रिय विद्वान् पक्षपात को छोड़नेवाले शरीर और आत्मा के बल से अत्यन्त पुरुषार्थी तथा आलस्य को छो़ड़े हुए धर्म से बड़े-बड़े युद्धों को जीत के प्रजा को निरन्तर पालन करते हैं, वे ही महाभाग्य को प्राप्त होके सुखी रहते हैं॥४॥
(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)
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हमारी website: www.agnidhwaj.in
(सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)
इन्द्र॒ वाजे॑षु नोऽव स॒हस्र॑प्रधनेषु च। उ॒ग्र उ॒ग्राभि॑रू॒तिभिः॑॥
- ऋग्वेद (1.7.4)
हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्य देनेवाले जगदीश्वर ! (उग्रः) सब प्रकार से अनन्त पराक्रमवान् आप (सहस्रप्रधनेषु) असंख्यात धन को देनेवाले चक्रवर्त्ति राज्य को सिद्ध करनेवाले (वाजेषु) महायुद्धों में (उग्राभिः) अत्यन्त सुख देनेवाली (ऊतिभिः) उत्तम-उत्तम पदार्थों की प्राप्ति तथा पदार्थों के विज्ञान और आनन्द में प्रवेश कराने से हम लोगों की (अव) रक्षा कीजिये॥४॥
परमेश्वर का यह स्वभाव है कि युद्ध करनेवाले धर्मात्मा पुरुषों पर अपनी कृपा करता है और आलसियों पर नहीं। इसी से जो मनुष्य जितेन्द्रिय विद्वान् पक्षपात को छोड़नेवाले शरीर और आत्मा के बल से अत्यन्त पुरुषार्थी तथा आलस्य को छो़ड़े हुए धर्म से बड़े-बड़े युद्धों को जीत के प्रजा को निरन्तर पालन करते हैं, वे ही महाभाग्य को प्राप्त होके सुखी रहते हैं॥४॥
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